लोक साहित्य संस्कृति का एक अभिन्न अंग हैं। विविध प्रकार के आधुनिक भारतीय अध्ययनों में ‘लोक-साहित्य’ शब्द की शुरुआत तथा प्रयोग मराठी से हुआ। यह इस अर्थ में है कि एक स्वतंत्र संकाय के रूप में प्रस्तुत लोक-साहित्य को माना जाता है। लोक साहित्य ‘लोक’ और ‘साहित्य’ दो शब्दों से मिलकर बना है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने साहित्य में वर्णित ‘लोक’ शब्द के अर्थ की बहुत ही सटीक शब्दों में व्याख्या की है कि – “लोक का अर्थ नगरों एवं गाँवों में फैली उस समूची जनता से है, जो परिष्कृत, रुचि-सम्पन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन की अभ्यस्त होती है, जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं हैं।”
इसी विचार की पुष्टि करते हुए डॉ. सत्येन्द्र ने कहा हैं कि – “लोक मानव समाज का वह वर्ग है, जो आभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य है, जो एक परम्परा के प्रवाह में जीवित रहता है।”
लोक से तात्पर्य उस सामान्य जनता से है, जिसके पास पुस्तकीय ज्ञान न होते हुए भी, अपनी संस्कृति को वाणी के द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवंत रखने की क्षमता रखती है। लोक से ही संस्कृति की उपज होती है, वही संस्कृति को आधार प्रदान करती है। लोक और संस्कृति का संबंध आधाराधेय का है। यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि लोक साहित्य का जन्म भी लोक संस्कृति से ही होता है।
लोक साहित्य का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना की मानव जीवन। ’लोक’ मानस की अभिव्यक्ति का माध्यम है, वह गेय रचना-साहित्य जिसमें लोक जीवन के अनुभूत चित्र अपने सरलतम नैसर्गिक रूप में मिलते हैं। लोक साहित्य में लोक मानस का हृदय बोलता है। स्मृति के सहारे जीवित रहने वाला लोक साहित्य अनेक लोगों के कण्ठों से गुजरता हुआ बनता-बिगड़ता एक सर्वमान्य लोक-स्वीकृत, लोक-व्यवहृत रूप पा लेता है। लोगों के मध्य से गुजरते हुए भी एकता की भावना से ओत-प्रोत लोक साहित्य जन-जन को जोड़ने की क्षमता रखता है। लोक साहित्य में व्यक्ति-विशेष की नहीं बल्कि लोक की छाप रहती है। चूँकि लोक-साहित्य लिपिबद्ध कम और मौखिक अधिक रहता है।
साधारण जन-स्वभाव के अनुरूप उसकी भाषा भी शिष्ट साहित्यिक न होकर जन-मन की भाषा होती है। उसका शिल्प-विधान भी नैसर्गिक, निर्व्याज एवं निर्मुक्त होता है। प्राकृतिक आभा से दीप्त इसकी अनलंकृत शैली उस जंगल के पुष्प के समान है, जिसे देखने-सुनने वाले लोग भले ही कम हो परन्तु उसकी सुरभि-सुगंध चहुँओर मदमाती है। लोक साहित्य के महत्त्व को किसी भी दृष्टि से कम नहीं आँका जा सकता है।
लोक साहित्य को लिपिबद्ध करने हेतु काफी वर्षों से प्रयास किया जा रहा है तथा अनेक ग्रंथ भी संपादित रूप में सामने आए हैं, परंतु अब भी मौखिक लोक साहित्य बहुत बड़ी मात्रा में असंग्रहित है। लोक जीवन की जैसी सरलतम, नैसर्गिक, अनुभूतिमय अभिव्यंजना का चित्रण लोक गीतों व लोक कथाओं में मिलता है, वैसा चित्रण अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।
लोक साहित्य में लोक मानव का हृदय बोलता-धड़कता प्रतीत होता है। वहाँ की प्रकृति उसके संग स्वयं गुनगुनाती नजर आती है। लोक साहित्य में निहित सौंदर्य का मू्ल्याँकन सर्वथा अनुभूतिजन्य है। लोक साहित्य की महत्ता को प्रत्येक व्यक्ति महसूस कर सकता है, जो अपनी उस लोक संस्कृति, भाषा से जुड़ा होता है। यह जन्मजात अनुभूति अपनी माटी से वह उम्रभर अनुभव करता है। देश से बाहर विदेश में बैठा व्यक्ति जब अपने देश के लोक साहित्य को पढ़ता है, तो वहाँ के लोक गीतों को सुनता है, तब उसे जो परमानंद प्राप्त होता है, वह उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाता है। वह दूर होकर भी अपनी संस्कृति में स्वयं को लिप्त पाता है। लोक धरातल से उठने वाले इस साहित्य ने आज अपना एक शीर्षस्थ स्थान साहित्य में बना लिया है। यदि लोक साहित्य को वैदिक साहित्य के समकक्ष भी माना जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रमाण के रूप में हमारे लोक जीवन के बहुत से सांस्कारिक तथा धार्मिक कार्य वैदिक मंत्रों से ही सम्पन्न होते हैं।
लोक साहित्य में युग-युग की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व साँस्कृतिक परिस्थितियों का परिचय मिलता है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक, एक समुदाय से दूसरे समुदाय तक पहुँचने वाले लोक साहित्य की परम्पराएँ आज हमारे पास आसानी से पहुँची हैं। यही वे कड़ियाँ हैं, जिन्होंने हमें इतिहास की लुप्त होती हुई कड़ियों को जोड़ने में सहायता प्रदान की है। अतीत को वर्तमान से जोड़कर उसमें परस्पर समन्वय स्थापित करना लोक साहित्य की एक अलग विशेषता रही है, जिसके परिणामस्वरूप ही यह केवल साँस्कृतिक धरोहर एवं गुजरे हुए कल की आवाज न होकर आज भी जीवंत सर्जना है। आज लोक साहित्य, वाणी है, इसी कारण लोक साहित्य का महत्त्व विविध क्षेत्रों जैसे – सामाजिक, आर्थिक, साँस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक, शैक्षिक, भाषिक, वैज्ञानिक ज्ञान एवं नीति विषयक में स्वीकार कर अधिकाधिक उपयोग किया जाता है।
लोक साहित्य समाज, संस्कृति, और इतिहास का दर्पण है। इसमें लोकगीत, लोककथाएँ, लोक-नाट्य, और लोक-गाथाएँ शामिल हैं, जो जन-जीवन के सुख-दुख, आशा-निराशा, रीति-रिवाजों, और मान्यताओं को दर्शाते है।
लोक साहित्य का महत्व:
सांस्कृतिक पहचान:
लोक साहित्य किसी समाज की सांस्कृतिक पहचान को उजागर करता है, उसकी मान्यताओं, रीति-रिवाजों, और परंपराओं को दर्शाता है।
सामाजिक जीवन का प्रतिबिंब:
यह सामाजिक जीवन का सच्चा प्रतिबिंब है, जो जनमानस की भावनाओं, आकांक्षाओं, और संघर्षों को व्यक्त करता है।
ज्ञान और शिक्षा का स्रोत:
लोक साहित्य ज्ञान और शिक्षा का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, जो इतिहास, भूगोल, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, और अन्य विषयों के बारे में जानकारी प्रदान करता है।
मनोरंजन और प्रेरणा:
यह मनोरंजन और प्रेरणा का भी एक स्रोत है, जो लोगों को खुशी, उत्साह, और प्रेरणा देता है।
भाषा और बोली का संरक्षण:
लोक साहित्य भाषा और बोली के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि यह स्थानीय बोलियों में संरक्षित रहता है।
लोक साहित्य के उदाहरण:
- लोकगीत: विवाह, फसल, त्योहार, और अन्य अवसरों पर गाए जाने वाले गीत, जो जन-जीवन की भावनाओं और अनुभवों को व्यक्त करते है।
- लोककथाएँ: माता-पिता, भाई-बहन, और अन्य रिश्तेदारों के बारे में कहानियाँ, जो शिक्षा, नैतिक मूल्य, और व्यवहारिक ज्ञान सिखाती है।
- लोक-नाट्य: स्थानीय बोलियों में खेले जाने वाले नाटक, जो लोक-संस्कृति, रीति-रिवाजों, और मान्यताओं को दर्शाते है।
- लोक-गाथाएँ: लंबी कथाएँ, जो ऐतिहासिक घटनाओं, पौराणिक कथाओं, और सामाजिक संघर्षों को दर्शाती है।
इस प्रकार लोक साहित्य मानवीय जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो समाज, संस्कृति, और इतिहास के बारे में जानकारी प्रदान करता है। यह ज्ञान, शिक्षा, मनोरंजन, और प्रेरणा का एक स्रोत है, जो लोगों को उनके अतीत से जोड़ता है और उनकी सांस्कृतिक पहचान को अत्यधिक मजबूत करता है।
– डॉ. अमृत लाल जीनगर
सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, माधव विश्वविद्याय, पिण्डवाड़ा (राज.)